‘इंदु सरकार’ बनाकर मधुर भंडारकर लगता है विवादों के भंवर में फंस गये हैं। एक तरफ कांग्रेस पार्टी को यह फिल्म रास नहीं आ रही है तो दूसरी तरफ सेंसर बोर्ड ने भी कैंची चलाने का आदेश देकर मधुर भंडारकर के मंसूबे पर पानी फेर दिया है। सेंसर बोर्ड ने ‘इंदु सरकार’ में कुल 12 से 14 जगहों पर कैंची चलाने का जो आदेश दिया है, उससे फिल्म बनाने का मकसद ही समाप्त हो गया।
'इंदु सरकार' बनाकर मधुर भंडारकर लगता है विवादों के भंवर में फंस गये हैं। एक तरफ कांग्रेस पार्टी को यह फिल्म रास नहीं आ रही है तो दूसरी तरफ सेंसर बोर्ड ने भी कैंची चलाने का आदेश देकर मधुर भंडारकर के मंसूबे पर पानी फेर दिया है। सेंसर बोर्ड ने 'इंदु सरकार' में कुल 12 से 14 जगहों पर कैंची चलाने का जो आदेश दिया है, उससे फिल्म बनाने का मकसद ही समाप्त हो गया।
कोर्ट की शरण में जाऊंगा-मधुर
सेंसर बोर्ड की आपत्तियों के मुताबिक 'इंदु सरकार' में ना तो किसी भी पार्टी का नामोल्लेख हो सकता है और ना ही किसी राजनीतिक शख्सियत का नाम लेकर जिक्र। जाहिर है इससे मधुर भंडारकर की रणनीति को गहरा झटका लगा है। हालांकि मधुर भंडारकर ने बोर्ड के आदेश के खिलाफ रिव्यूइंग कमेटी में जाने का एलान कर दिया है। अब सबकी नजर वहां से आने वाले फैसले पर लगी है। सवाल है अगर वहां भी मधुर को राजनीतिक दलों और आपातकाल के दौरान की सियासी शख्सियतों को लेकर कहे गये संवादों के साथ फिल्म को रिलीज करने का आदेश नहीं मिला, तो क्या करेंगे? मधुर ने इसका भी जवाब दिया कि फिर वो कानून की शरण में जायेंगे। मधुर भंडारकर का साफ शब्दों में मानना है कि इन संवादों और शब्दों को निकालने से फिल्म का सार ही खत्म हो जायेगा। जानकारी के मुताबिक 'इंदु सरकार' को लेकर सेंसर बोर्ड को केवल वास्तविक नामों पर ही आपत्ति नहीं है बल्कि 'आपातकाल' शब्द पर भी एतराज है। बोर्ड ने 'आपातकाल' शब्द को भी फिल्म के संवाद से हटाने को कहा है। इसी बीच एक सवाल यह भी है कि पिछले दिनों कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने जिस तरह बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी के पास 'इंदु सरकार' को ना रिलीज करने की अर्जी दी थी, क्या बोर्ड अध्यक्ष पर उसका भी कोई असर हुआ है या 'इंदु सरकार' के बहाने मधुर भंडारकर के कथित 'पोलिटिकल गेम' पर बोर्ड लगाम लगाना चाहता है?
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सियासी बैकग्राउंड की फिल्म क्यों?
'सत्ता' फिल्म की प्रदर्शन रिपोर्ट से साफ हो चुका था ऐसे विषय मधुर भंडारकर का स्वाभाविक नेचर और जॉनर नहीं है लिहाजा 'इंदु सरकार' की कहानी भी उनकी शख्सियत की करीब कही से भी फिट नहीं बैठती। यह कहानी वास्तव में प्रकाश झा के फिल्मी जॉनर की है। ग्लैमर जगत के स्याह और संघर्ष पक्ष को मधुर अब तक खूब दिखा चुके हैं और सुर्खियों से लेकर सराहना और राष्ट्रीय अवॉर्ड तक बटोरे हैं। 'चांदनी बार' हो या 'कॉरपोरेट' या फिर 'पेज3' और 'फैशन'; आदि फिल्मों में मधुर भंडारकर ने हिन्दी सिनेमा के दर्शकों को एक अलग दुनिया की कहानी दिखाई और उस सलीके के साथ दिखाई जहां परिवेश का चित्रण प्रमुख था ना कि मुख्यधारा का परंपरागत मसाला पिरोना उनका मकसद था। यही वजह थी कि इन फिल्मों को सभी वर्ग और गांव-शहर के दर्शकों ने बड़े ही चाव से देखा और मधुर की सराहना की। हां, यह सही है कि किसी फिल्मकार को विषय की नवीनता को लेकर सजग रहना चाहिये और यही वजह थी कि मधुर ने 'ट्रैफिक सिग्नल' जैसे छोटे परिवेश पर भी यथार्थवादी शैली की फिल्म बनाई थी जिसका एक जिम्मेदार मकसद सामने आया था। लेकिन इस बार विषय की नवीनता के नाम पर 'इंदु सरकार' बनाकर ऐसा लगता है मधुर भंडारकर बहुत आसानी से एक्सपोज हो गये। 'इंदु सरकार' का आशय लोगों को समझ नहीं आ रहा। आज की सियासी फिजां में इंदिरा गांधी और संजय गांधी को केंद्र में रखकर आखिर आपातकाल की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाने का मकसद क्या है? जबकि 'सत्ता' सुख से वो हाथ धो चुके थे।
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार संजीब श्रीवास्तव के ब्लाग पिक्चर प्लस से साभार